Wednesday, March 13, 2013

Divine...is what this poem can be called !

This poem written by Amritanshu Sharma is profound, divine and kindled in me some kind of spark. This poem was recited to me by him few days ago, the stunning thought behind the poem and the soul and meaning in every word left me enthralled. So, i thought to share this beautiful piece of poetry with all of you...

Do read it please...its worth it !

है अमित छाप या अर्जित शाप, दोनों से ही शर्मिंदा हूँ
अधरों में फंसे हुए प्राण, शायद अब तक भी जिंदा हूँ

कुछ खेल खिलौने होते थे, मखमली बिछौने होते थे,
जब शाम सुहानी ढलती तो फिर स्वप्न पिरोने होते थे.
उस छुपा छुपी से थकी हुई जो गुज़र गयी वो निद्रा हूँ,
अधरों में फंसे हुए प्राण, शायद अब तक भी जिंदा हूँ

वो वक़्त अनोखा होता था, जो हवा का झोंका होता था,
उस वेग को हमने अपने हाथों से रोक होता था,
क्या गर्वित थे! क्यूँ गर्वित थे?
क्या गर्जन थी! क्यों गर्जन थी?
आँखें झुकना भूली न थी पर सीना चौड़ा होता था
वो कल परसों ही की हुई फतह का आज बाशिंदा हूँ
अधरों में फंसे हुए प्राण शायद ही अब मैं जिंदा हूँ

कुछ समय से कुछ अधुरा हो गया हूँ
काफी ऊँची तान भरा करता था मैं पर,
अब थोड़ा बेसुरा हो गया हूँ
कितने काम रह गए हैं, जो करने को सब कह गए हैं पर,
अब मन नहीं करता
चंचलता के, उद्यम के बांध तोड़ दिए थे मैंने पर,
पर, अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ
जो खुद से खुद हैं डरे हुए मैं हर उस तक की निंदा हूँ
अधरों में फंसे हुए प्राण, शायद ही अब मैं जिंदा हूँ


अमृतांशु

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